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(यह कार्टून अंग्रेजी पत्र "द हिन्दू" से लिया गया है. पहला कार्टून केशव तथा दूसरा कार्टून को सुरेन्द्र जी जीवित किया है. हम आभार और ध्यानवाद के साथ हम इन दोनों कार्टून को प्रकाशित कर रहे है.) |
यह तस्वीर कई प्रश्नो को जीवंत कर देता है. वास्तव में यह एक यक्ष प्रश्न बन चूका है की आधुनिकता के इस दौर में किसान जाये तो कहा जाये ? ऐसा लगता है की किसान होना हीं अभिशाप बन चूका है. एक तरफ तो हम किसान को देश का बैकबोन कहते है जिसके बिना जीवन-चक्र ही नहीं चल सकता है. दूसरी तरफ, किसान आज अपने आप को परिवार के जीवन यापन खातिर मृत्यु को ही गले लगा लेता है. क्या आज हमारी भारत माता का गोद शुन्य हो गया है. यह देश पुरे दुनिया को खिलाया है. डचों से लेकर अंग्रेजो तक को इसने सानिध्य किया है. यह देश, दुनिया के सबसे ज्यादा तरह के जैव विविधता को पालता है फिर आज ऐसा क्यों है की देश में प्रत्येक आधे घण्टे में एक किसान आत्महत्या कर लेता है?
ज्ञातव्य हो की भारत एक कृषि प्रधान देश है. आज देश के ६०% लोग गाँवों में निवास करते है. लेकिन इनके लिए बजट में कुल खर्च का थोडा ही हिस्सा है इनके लिए प्रावधान होता है. आज यह देश ऐतिहासिक दार से गुजर रहा है जिसे अंगरेजी में पड़े लिखे लोग इसे ट्रांजीशन फेज कहते है. कृषि-प्रधान राष्ट्र से उद्योग आधारित राष्ट्र के और जाने के ओर कौतहूल है. लेकिन कोई भी रास्त्र कृषि को अनदेखी कर आगे नहीं बाद सकता है. हमें इस बात को समझना होगा की "किसान की समस्या" किसान के समस्या नही है, यह देश की मूलभूत समस्या है और "राष्ट्र-समस्या" है. इस समस्या को "मुआवजा" या टेक्नोलॉजी आधारित application से नही टैकल किया जा सकता है. इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरुरत है.
तो क्या इसके लिए सिर्फ वर्तमान सरकार ही जिम्मेवार है? क्या यह प्रश्न नही बनता की है की कांग्रेस ने पिछले ५० वर्सो में कृषि के लिए क्या किया? इसने अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए जमींदारी प्रथा को बनाये रखा। कृषि को समृद्ध करने के बजाय ऐसे प्रोग्राम लाये जिससे बिचौलोए को ज्यादा फायदा हो सके. स्वामीनाथन रिपोर्ट को दरकिनार किया गया. कॉर्पोरेट के दबाब में कृषि में निवेश नही किये गया. वगैरह , वगैरह
क्या पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलम का PURA का सपना कभी पूरा हो पायेगा? (PURA जिसका फुल फॉर्म है- Providing Urban Amenities in Rural Areas) नही! इस संधर्व में आज जरुरत है एक इंटेग्रेटेड एप्रोच का जो कृषि को एक लाभ आधारित उद्योग बना सके- इसमे स्वस्थ, मार्केटिंग, इन्फर्मेशन , बीमा, सड़क, शिक्षा और शोध समग्र रुप से शामिल हो. क्या किसान को बाजार आधारित मूल्य मिल पायेगा ? क्या सरकार रूरल मार्केटिंग के लिए देश के विभिन हिस्सों में कोल्ड स्टोरेज और हाट खोलने के लिए अपना कुबेर से पैसे निकल पायेगा? या फिर किसान को यैसे हीं इंडस्ट्री और कॉर्पोरेट के बेच में सैंडविच बना कर राजनीति की ताव को गर्म रखा जायेगा। मसलन - २ लाख, ५ लाख , या १० लाख, एक किसान के फांसी पर.
मुझे नही पता की आगे क्या होगा या होने वाला है? लेकिन इतना जरूर कह सकता हू की देश का किसान की हालत उस कौए के तरह हो गया है जो पाने के एक-एक बून्द के लिए मोहताज है और आकाश के ओर देख रहा है के काश प्रत्येक वर्ष चुनावी वर्ष होता। फिलहाल तो अभी हम जातीय समीकरण में उलझे हुए है. पटना के गांधी मैदान में चुनाव के पहले करीब आधा दर्जन जातीय रैलियाँ हो चुकी है. और मुद्दा यहे के टिकट बटवारे में हमारे समाज को दरकिनार न किया जाय. हालां की मेरे समझ में किसान का प्रश्न एक सामाजिक, आर्थिक और राजनतिक प्रश्न ज्यादा है न की चुनावी प्रश्न।